माटी की हम पुतलियाँ खेलें खेल खेलाय
महू। वरिष्ठ साहित्यकार एवं दोहा लेखक बिदिशा के सेवानिवृत प्राध्यापक डॉ. जगमोहन शर्मा कालजयी एवं सामाजिक कविताओं के मर्मज्ञ एव प्रख्यात रचनाकार है। डॉ. बी. आर. अम्बेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय, महू में आगमन कुलपति प्रो. डी.के.शर्मा के सानिध्य में वरिष्ठ पत्रकार एवं कविता मर्मज्ञ प्रो.शैलेंद्र मणि त्रिपाठी, डॉ. मनोज कुमार गुप्ता तथा डॉ. रामशंकर की बात-चीत। प्रस्तुत है बातचीत क़े प्रमुख अंश ।डॉ. जगमोहन शर्मा बड़ी-बड़ी कविताओं के मर्म को इनके दोहों में सहसा जनमानस को मिल जाता है। लोगों के पास आज लम्बी कविताओं को सुनाने का समय नहीं है अतः दोहों के माध्यम से बातें एवं अभिव्यक्तियों को रखना उचित हो जाता है।विचारधाराओं के संगम और मतों के संबंध में कहते हैं कि मैं बारूद हूँ बारूद, चाहे इस्तेमाल करो विध्वंश के लिए चाहे कल्याण की लिए.
25-26 वर्ष पहले महाविद्यालय में अध्यापन के दौरान से ही दोहें लिखता हूँ। 40हजार से अधिक दोहों को लिख चुका हूँ। बिना-लिखे पढ़े नहीं रह पाता। शुरू में लिखा कि-
मैं जो था मर चुका, अब तो करिए माफ़। शेष बचा जो सामने उसे मिले इंसाफ।।
दोहा लिखने के सन्दर्भ में कहते हैं कि दोहा संतों की विधा है लिखते समय कथनी करनी और आत्मा शुद्ध होनी चाहिए। पहले लेखन में उर्दू के शब्द हुआ करते थे लेकिन उज्जैन में संस्कृति के विद्वान भास्कराचार्य जी मिले जिन्होंने दोहों से उर्दू शब्द हटाने की बात कही मैंने हटा दिया। शब्द तो कैरियर है जिसे सन्देश रुपी अभिव्यक्ति को उचित स्थान तक पहुँचाना है।
मैंने सामाजिक पक्ष पर भी लगातार लिखा जैसे-
बद से बद, बदकिस्मती क्या देखेंगे आप। बेटे घर में सो रहे, बोझा ढो रहे बाप।।
सामाजिक संवेदनाओं को भी देखा जा सकता है कि-
बच्चा है या फरिस्ता, नहीं किसी से होड़। ले आया मां की दवा खुद की गुल्लक फोड़।।
साहित्य की पकड़ जन-जन तक होनी चाहिए, नवगीत कवितायेँ और गीत लिखते हैं जिनका लोगों को अर्थ भी नहीं पता चल पाता है। कविता चाहे छंदमुक्त हो या छंदयुक्त दोनों के अर्थ सरल और जनमानस को समझ में आने योग्य हों।
यादों की गुल्लक खुली, रोम-रोम हर्षाय। तब तक मेरे बदन से तेरी खुशबू आय।।
जीवन का मर्म समाज के लिए मिट जाना होता है। मेरे जीवन का दर्शन दो पैरों पर खड़ा है। मैं बरबस ही समाज और अध्यात्म में मिट जाना चाहता हूँ। अद्वैत और द्वैत पर अष्टावक्र ने महागीता में भी व्याख्यायित किया है मैंने भी लिखा है कि-
एक मोमबत्ती अगर, दोनों सिरे जलाय। मूल यही अद्वैत है, अँखियाँ द्वैत बताय।।
गीता के संस्कृतनिष्ठ श्लोकों को मैंने हिंदी में मैंने ‘गीता-दोहा रूपांतरण’ नाम से रचना की है इसमें 700 श्लोक और 18 अध्याय हैं। सभी श्लोकों को दोहे में सरल
ढंग से रूपांतरित कर पुस्तक का प्रकाशन किया
जा रहां है । पुस्तक का नाम है गीता का दोहे में रूपांतरण ।अब लोग गीता को दोहे के
माध्यम से समझ सकते है ।यह पुस्तक गीता
क़ो जानने एव समझने में सामर्थ्यवान हो सकेगी ।
आध्यात्मिक चेतना पर भी लिखा है जैसे-
देह दीया बाती उमर, ज्योति आत्मा जान। समय तेल बन जल रहा, करले कार्य महान।।
धर्म मौन धीरज तके, हिमगिरि लगे उदास। ताल तलैया लिख रहे गंगा का इतिहास।।
गाड़ी लेकर कांच की लोहे का सामान। उबड़-खाबड़ रास्ता कहाँ चले श्रीमान।।
मैंने पूछा संत से कह जीवन का हाल। मौन रहा मुट्ठी भरी फेंका राख उछाल।।
मैंने गीता के आलावा अन्य पर लिखा। एक मुस्लिम मित्र थे उन्होंने कहा कि कुछ मुझे भी लौकिक-अलौकिक पर सुनाये तो मैंने कहा कि –
मैंने पूछा पीर से, कह जीवन तासीर। उसने मुझको दिखा दी पानी पर तस्वीर।।
अनुभव हुआ निःशब्द से नांच उठा मन मौन। शब्द कर रहे व्याख्या, कैसे समझूँ कौन।।
मेरी मार्क्स और लेनिन पर पीएचडी है। यह भी कहा जा सकता है कि उनसे प्रेरित भी रहा लेकिन ईश्वर के प्रतिप्रेम और अगाध निष्ठां पर मैंने यह भी लिखा-
मोहन मूरत मोहिनी, मधुर-मधुर मुस्कान। मायामय मुरली मधुर, मथुरा में मेहमान।।सौन्दर्य पर लिखा है ।
कंचन काया कामिनी, कटि कुच कंठ कमाल। करुणाकर करुणाकरण, कृपा करें कुछ काल।।
वर्ष 1975 में पहली बार कविता लिखी मैं उस दौरान एस.एच. कॉलेज विदिशा में अध्ययन-अध्यापन कर रहा था। मैंने जो पहली कविता लिखी वह यह है-
ये ऊँचे-ऊँचे मंदिर, ये मस्जिदें और ये गगनचुम्भी चर्च, इन पर होने वाला बेशुमार खर्च।
ये हैं हमारी संस्कृतियों के प्रताप, मगर मुझे नजर आते हैं ये शमशान जब इन्हीं की सीढियों पर दम तोड़ते हैं इंसान।
मेरे 40 हजार से अधिक दोहे हैं। दोहा लिखते समय मैंने सामाजिक मानदंडों की गिरावट पर भी दोहे लिखे जैसे-
सुंदर पगली घूमती बड़ा अजब था हाल। धन्य नगर के देवता, बच्चा दें हर साल।।
अँधा मांगे भीख नित, सुंदर बेटी साथ। इंतजार में लोग हैं लड़की होय अनाथ।
जीवन के इस छोटे उहा-पोह सफ़र पर भी मैंने सोचा और लिखा-
छोटे तीन पड़ाव कुल, सुबह दोपहर शाम। छोटे इस सफ़र का रखा जिन्दगी नाम।।
माटी की हम पुतलियाँ, खेलें खेल खेलाय। कर्मों का संग्रह करें माटी में मिल जाय।।
यक्षप्रिया की पाती में आज से करीब दो हजार साल पहले महाकवि कालिदास ने अपनी कालजयी रचना मेघदूत में कुबेर के सेवक यक्ष द्वारा मेघ को दूत बनाकर अपनी पत्नी के नाम विरह के संदेश की रचना की थी, अब मैंने यक्ष प्रिया की पाती लिखकर पत्नी का जवाब मेघ के जरिये भेजा है। इस काव्य संग्रह को विक्रम विश्व विद्यालय ने एमए के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है, जिसे कालेज के विद्यार्थी एमए अंतिम वर्ष में पढ़ सकेंगे।
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